उम्मीद

हर रोज़ सवेरा होता है
मुर्दाघर की कतारें लम्बी होती जाती है |
चीखता है मन
कैसी आपदा है यह?

क्या इंसान ने कभी सोचा था
हवा में सांस लेना खतरा बन जाएगा?
जूंझता है लाचार इंसान
कोई तो मदद के लिए आगे आये|

यह कैसा चक्रव्यूह है
जिसका भेद कोई न जाना?

एक अजीब माहौल है
घंटों बस ग़म का साया है
हर घर में खौफ बस गया है
अगले सवेरे की आस में सो जाता है

दिन लम्बे हो गए है
चार दीवारी अपनी सी लग रही है
सुकून बस इस बात की है
आज ज़िन्दगी से फिर राब्ता हुआ ||

Deep Thinker. Philosopher. Author. Theatre Artist
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